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अधा॒ यो विश्वा॒ भुव॑ना॒भि म॒ज्मने॑शान॒कृत्प्रव॑या अ॒भ्यव॑र्धत। आद्रोद॑सी॒ ज्योति॑षा॒ वह्नि॒रात॑नो॒त्सीव्य॒न्तमां॑सि॒ दुधि॑ता॒ सम॑व्ययत्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhā yo viśvā bhuvanābhi majmaneśānakṛt pravayā abhy avardhata | ād rodasī jyotiṣā vahnir ātanot sīvyan tamāṁsi dudhitā sam avyayat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध॑। यः। विश्वा॑। भुव॑ना। अ॒भि। म॒ज्मना॑। ई॒शा॒न॒ऽकृत्। प्रऽव॑याः। अ॒भि। अव॑र्धत। आत्। रोद॑सी॒ इति॑। ज्योति॑षा। वह्निः॑। आ। अ॒त॒नो॒त्। सीव्य॑न्। तमां॑सि। दुधि॑ता। सम्। अ॒व्य॒य॒त्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:17» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:19» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो (यः) जो (ईशानकृत्) ईश्वरता का शील रखनेवाले पुरुषों को करता वा (प्रवयाः) उत्कर्षता से व्याप्त होता और (मज्मना) बलसे (विश्वा) समस्त (भुवना) लोकों के (अभि,अवर्द्धत्) अभिमुख वृद्धि को प्राप्त होता और जैसे (वह्निः) सबको एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचानेवाला अग्नि (ज्योतिषा) अपनी लपट से (तमांसि) रात्रिरूपी अन्धकारों को निवृत्त करता वैसे (रोदसी) आकाश और पृथिवियों को (आतनोत्) विस्तार तथा (अभिसीव्यन्) सब ओर से उन लोकों को रचता हुआ (दुधिता) जो पदार्थ दूसरे देश में होते वा सुख करनेवाले होते हैं उनको (अव्ययत्) सब ओर से आच्छादित करता है (सः) वह (अध) उक्त विषयों के अनन्तर सबको पूजनीय है ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस जगदीश्वर ने प्रकाश के लिये सूर्य, भोजनों के लिये औषधि, पीने के लिये जल रसों को, निवास के लिये भूमि और कर्म करने के लिये शरीर आदि बनाये हैं, वह पिता के तुल्य सबको सत्कार करने योग्य है ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या य ईशानकृत्प्रवया मज्मना विश्वा भुवनाभ्यवर्द्धत यथा वह्निर्ज्योतिषा तमांसि निवर्त्तयति तथा रोदसी आतनोदभिसीव्यन्दुधिता समव्ययत्सोऽध सर्वैः पूजनीयः ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) आनन्तर्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (यः) सूर्य इव जगदीश्वरः (विश्वा) सर्वाणि (भुवना) भुवनानि लोकान् (अभि) आभिमुख्ये (मज्मना) बलेन (ईशानकृत्) य ईशानानीशञ्छीलान् पुरुषार्थिनः करोति (प्रवयाः) यः प्रकर्षेण व्याप्नोति (अभि) (अवर्द्धत) वर्द्धते (आत्) समन्तात् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (ज्योतिषा) प्रकाशेन (वह्निः) सर्वस्य वोढा (आ,अतनोत्) सर्वतो विस्तृणाति (सीव्यन्) रचयन् (तमांसि) रात्रीः (दुधिता) दुर्हितानि दूरे सन्ति सुखकारकाणि (सम्) (अव्ययत्) सर्वतः संवृणोति ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येन जगदीश्वरेण प्रकाशाय सूर्यो भोजनायौषधानि पानाय जलरसा निवासाय भूमिः कर्मकरणाय शरीरादीनि निर्मितानि स पितृवत्सर्वैः सत्कर्त्तव्यः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या जगदीश्वराने प्रकाशासाठी सूर्य, भोजनासाठी औषधी, पिण्यासाठी जलरस, निवासासाठी भूमी व कर्म करण्यासाठी शरीर दिलेले आहे. त्याचा सर्वांनी पित्याप्रमाणे आदर करावा. ॥ ४ ॥